
फिर किसे अच्छा नही लगता वह सब कुछ, जिससे देह भी तृप्त होता है, दिमाग भी बाग-बाग होता रहता है और दिल के तो कहने ही क्या। मुफत में कोई सुकून मिलता रहे तो कौन होगा जो इस पर पहरे बिठाने की सोच भी सके। फिर आजकल ऎसे विश्वस्त लोग कहां मिलते हैं जो स्वामीभक्ति और वफादारी में किसी से कम नही होते। इस वफादारी का प्रतिफल पाना सभी का हक है, और स्वामीभक्ति में रमे हुए लोगों को पुरस्कार देते हुए प्रोत्साहित करते रहना ही उदारता का पहला अध्याय है। आजकल सभी जगह यही सब हो रहा है। या तो ‘‘उष्ट्राणां विवाहे .....’ वाली बात सिद्ध हो रही है अथवा एक-दूसरे के लिए जीने की बातें साकार हो रही हैं। सब एक-दूसरे की प्रशंसा और प्रशस्ति गान करते हुए भरमाते हुए आगे बढ़ना और प्रतिष्ठित होना चाहते हैं। कोई किसी के कंधे पर चढ़कर अपने कद को ऊँचा करने में भिड़ा हुआ है, कोई टांग खींचकर आगे आने के फेर में है, बहुत सारे हैं जिन्हें तलाश है उन मजबूत कंधों की जिन पर उनकी पालकियां स्थापित होकर विश्व विजय का सपना पूरा कर सकें। इसलिए अर्दली, चम्पीबाज, छड़ीदार और चँवर हिलाने वाले चंद लोग ही हैं जो बार-बार इन्हें दिखते हैं, इन्हें महान और अन्यतम बताते हैं और इन्हीं की जय-जयकार करते हुए यह प्रयास करते हैं कि बाहर का कुछ भी भीतर न आने पाए, जो कुछ सुनाई दे, दिखाई दे और अनुभव हो, वह सब कुछ अन्दर ही अन्दर का। ताकि उनके भ्रम बने रहें और साथ वालों का डेरा लम्बे समय तक कायम रहे और जिन्दगी भर नही तो कम से कम तब तक तो रहे ही जब तक कि इन साण्डों में कुछ दे पाने का माद्दा बना रहे, पॉवर का इस्तेमाल हो सके। कम से कम तभी तक का साथ बना रहे जब तक कि इन जर्सी गायों में दूध देने का समय बना रहे। बाद में जो होगा, देखा जाएगा। वैसे भी बिना पॉवर के आजकल कौन किसके साथ रहता है, लोग या तो चुप बैठ जाते हैं, पाला बदल लिया करते हैं अथवा अन्दरखाने कोई गुप्त समझौता ही कर डालते हैं। बेचारे कुछ बचे होंगे तो दर्शकों की तरह दूर रहकर तालियां बजाते रहकर हौसला अफजाई करते हैं अथवा मौन समर्थन देते हैं। कई बार तो लगता है कि जैसे मालिक और मातहतों में कोई फरक ही नही रहा, दोनों एक जैसी हरकतों पर आमादा हो जाते हैं। मालिक भुल जाते हैं अपनी प्रभुता और उतर आते हैं नीचता पर। उधर मातहतों को इतना सर चढ़ाये रखते हैं कि ये मालिक को दरकिनार कर खुद को मालिक समझते रहते हैं और जहाँ मौका मिलता है अपनी चाल चल लिया करते हैं। दोष किसी एक का नहीं माना जा सकता। जहाँ साहबों का वरदहस्त होगा वहाँ मातहतों की पहलवानी का चमत्कार दिखेगा ही दिखेगा।
इस मनोरंजन का ही परिणाम है कि हम अपने कामों को भूलते जा रहे हैं, कर्तव्यों को हाशिये पर बिठा दिया है और खुद उन्मुक्त, स्वच्छन्द और स्वेच्छाचारी होकर पूरे आसमान को नाप लेने के लिए मुक्त हैं। कौन किससे कहे और क्यों कहे, जब कही कुछ अन्तर रहा ही नहीं।
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