कोई भी कार्य या व्यवहार की शुरुआत से समापन तक पैसो की अहम भूमिका है अर्थात पैसो के बिना किसी आयोजन की कल्पना भी नही की जा सकती। अब ८ नवम्बर २०१६ से मोदीजी ने वर्तमान ५०० व १००० के नोट को बदलकर काले धन पर सफेदी पोतने का जो प्रयास किया है, उसमें कब और कितनी सफलता मिलती है ये तो समय ही बताएगा। पर ये प्रक्रिया किसी के लिए भी सहज नही क्योकि 'सफेदी पर तो पलक झपकते ही कालख रंग पकड़ लेती है पर कालख पर सफेदी को सजाना उतना सरल नही' अर्थात कभी प्रतिकूल परिस्तिथियां तो कभी धन के लालच ने उजले ईमान को बेईमान अंधेरो को सहज अपनाते देखा है पर बेईमान अंधेरो में मौज-मस्ती करने वालो को वापस उजाला रास नही आता। स्वेच्छा से या मज़बूरी से पर सरकारी नीति और कानून को मानना तो मज़बूरी हैं लेकिन आगे क्या?
इस सर्जिकल ऑपरेशन का हमारे इकनोमिक व्यवहार के साथ मानसिक व्यवहार और सोच को इतना भयभीत कर दिया है कि भविष्य में सामान्य व्यक्ति हजार रुपये भी कही खर्च करने से पहले सोचेगा। पहले जो पैसा था, उसको सरकार से छिपाना था, टैक्स भी नही भरना था तो उस पैसो को अपने नाम और शौहरत को बढ़ाने किसी भी धार्मिक और सामाजिक अवसर पर साफा-चुंदड़ी और तिलक लगवाकर सम्मानित होने में बेझिझक खर्च कर देता था। यही कारण था कि आडम्बर को सर्वत्र व्यापकता मिलती रही और आडम्बर समाज पर हावी हो गया था। पर अब इस आडम्बर के गुब्बारे की एक बार तो हवा निकल गयी। इस नवम्बर और दिसम्बर माह के बड़े-बड़े शादी-ब्याह व अन्य सामाजिक और धार्मिक कार्यक्रम या तो रद्द हो गए हैं या सादगी से निपटाऐ जा रहे है। अब ये केवल आपातकालीन परिस्तिथि हैं या सदा के लिए समझदारी भरा चलन बन जायेगा, ये तो समय ही बताएगा। हाँ पर लोगो पर इस सर्जिकल परिस्थिति का गहरा असर अवश्य हुआ है। इस बात का अंदाजा आप हाल ही में नमक की अफवाह मात्र के प्रभाव को लेकर ही लगा ले। नमक बाजारों में २०० रु. प्रति किलो के भाव से बिका और लोगो ने जथ्थेबंध ख़रीदा भी। पर सभी शायद इतने सदमे में है कि समझ ही न पाये की नमक जैसी अति आवश्यक रोजमर्रा की वस्तु पर कोई प्रतिबन्ध या टैक्स कैसे लग सकता है? सारांश यही है कि हमारी मानसिकता और सरकारी नीतियां जिस बदलती परिस्तिथियों की ओर गमन कर रही है, वहां पर कमाने और खर्च करने की संपूर्ण व्याख्या ही बदल जाये। जमा पैसो, सोने या प्रॉपर्टी से धनवान बनकर दोनों हाथों से खर्च कर दानवीर कहलाना अब संभव नही, अब तो पारदर्शक व्यवहार और पसीने की कमाई से दान-पुण्य करने की मानसिकता होगी। बदली परिस्तिथियों में ऐसी मानसिकता समाज में कितनी पनपती है, उसके आधार पर सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में आर्थिक आवक यानि इनकम होगी और उसी आधार पर कोई सामाजिक और धार्मिक आयोजन होगा। जैसे आज कई कार्यक्रम में उलट-फेर हुए है, भविष्य में ऐसा कुछ न हो, उसके लिए आडम्बर को नाबूद करना अनिवार्य है। जितनी सरलता और सहजता से कार्य करेंगे, नए नोट और नयी मानसिकता हमें उतना अधिक साथ देंगी।
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