बात 1978 की है। मैं ताबड़तोड़ स्कूल से घर पहुँचा और अपने बस्ते को क़ालीन पर पटक दिया और सर रखकर पूज्य माँ, बाबूजी के चरण-स्पर्श करे। ये हम बच्चों का प्रतिदिन का नियम था कि सुबह उठकर और घर से बाहर जाते समय व घर लौटने के बाद और रात सोने से पहले पूज्य माँ-बाबूजी या बड़े जो भी उस समय उपलब्ध हों, उनके चरण स्पर्श करना। भारत के क़स्बों और गाँवों में गुडनाइट उस समय चलन में नही था। सो भले ही मैंने रोष में बस्ता ज़मीन पर पटका लेकिन चरणस्पर्श करने का होश बना रहा। माँ की पर्यावेक्षक दृष्टि ने ऊपर से नीचे तक मुझे स्कैन कर लिया। ये उनका प्रतिदिन का नियम था कि बच्चे जब भी बाहर से घर आते तो वे अपनी ममतामयी आँखों से हमारे तन और मन का सूक्ष्म निरीक्षण कर लेती थी। हमें यह अहसास हो जाता कि माँ हमारे हृदय में बैठकर हमारे सत्य से भिज्ञ हैं इसलिए झूठ बोलने की आवश्यकता नही क्योंकि उसका कोई लाभ नही होगा और अंत में हमें सच बोलना ही पड़ेगा। इसलिए हमारे स्वभाव में ही ये आ गया था कि जब अंत में सच बोलना ही है तो बेहतर है कि बात का आरम्भ ही सत्य से किया जाए। एक और बड़ी विशेषता थी माँ की, वे आते ही प्रश्नों की झड़ी नही लगाती थी। वे बड़ा सुविधापूर्ण सन्नाटा रचती, जिससे हम अपनी बात कहने के लिए उपयुक्त शब्दों का चुनाव कर सकें। अधिकतर हम सभी झूठ नही बोलते, अनुपयुक्त शब्द बोलते हैं और ये ही अनुपयुक्त शब्द कालांतर में झूठ के नाम से ख्यात हो जाते हैं। माँ की ये सीख मुझे आज भी याद है कि अनुपयुक्त शब्दों में कही गई जायज़ बात भी नाजायज़ लगती है इसलिए समस्या के सही रेखांकन के लिए सही और उचित शब्द प्रयोग अनिवार्य होते हैं। माँ और बाबूजी ने मेरे बस्ता पटकने को अशिष्टता नही, उनके ध्यानाकर्षण के लिए किए गए कृत्य की श्रेणी में रखा और दोनों अपनी आपसी चर्चा को छोड़ मेरी तरफ़ उन्मुख हुए। माँ ने पानी का गिलास मुझे दिया। मैं पानी पीकर चुपचाप बैठ गया। हम तीनों के बीच सन्नाटा था लेकिन ये सन्नाटा हमारे कटाव की नही, जुड़ाव की घोषणा था। मुझे ये आज समझ आता है कि नि:शब्दता परिणाम नही, प्रक्रिया है। सन्नाटों के गर्भ से ही समाधान का जन्म होता है। ये हमारी बेचैनी के नही, चैन के निर्माता होते हैं। आज हमलोग जब भी अपने आत्मियों के बीच सन्नाटा पाते हैं तो असहज हो जाते हैं, उसका कारण मात्र इतना है कि हम उस सन्नाटे को प्रक्रिया नही, परिणाम मानने की भूल करते हैं इसलिए आत्मियों के बीच उत्पन्न हुए सन्नाटे, चुप्पी से घबराइए नही क्योंकि ये वो असहज प्रक्रिया है जिससे गुज़रकर हम सहज परिणामों को उपलब्ध होते हैं। माँ और बाबूजी बहुत धैर्य के साथ मेरे मुखर होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। मैं थोड़ा सहज हुआ और उस समय के हिसाब से जो शब्द अपनी बात रखने के लिए मुझे उपयुक्त लगे, उनका सहारा लेकर बोलने लगा। अभी वो लोग आपके पास आएँगे स्कूल से मेरी शिकायत लेकर, मेरा नाम बदनाम करने के लिए कि मैंने उन्हें मारा लेकिन मुझसे कुछ कहने के पहले ज़रा उन लोगों से भी पूछ लीजिएगा कि उन्होंने क्या किया था? शुरुआत उन लोगों ने ही की थी। सबको पता है कि मैं गणित में कमज़ोर हूँ। फिर भी सर बार-बार क्लास में मुझसे 19 का पहाड़ा पूछते हैं। मैं 19 दूनी 38 के बाद फंस जाता हूँ, जिससे सब हँसते हैं और सर मेरे सहपाठियों को हँसने से नही रोकते बल्कि उलटा मुझे डाँटते हैं। आधी छुट्टी में कबड्डी खेलते हुए तीन-चार प्लेअर जब मैं मार देता हूँ और वो हारने लगते हैं तो विपक्षी खिलाड़ी मुझसे 19 का पहाड़ा पूछने लगते हैं। इससे मुझे ग़ुस्सा आता है, तब मैं उनकी पीटाई करता हूँ और सर को लगता है कि मैं हमेशा लड़ता हूँ। ये हफ़्ते की चौथी घटना थी जब मैं एंटीसिपेट्री बेल लगा रहा था क्योंकि बाबूजी का कहना था कि तुम बाहर से पिटके आए तो घर में भी पिटोगे और यदि तुम्हारी कोई शिकायत घर पर आयी..तब भी पीटे जाओगे।
सो हमारी दोहरी ज़िम्मेदारी थी कि एक तो पिटने से बचो और दूसरा यदि किसी को पीटो तो यह निश्चित करो कि वो शिकायत घर ना पहुँचे। आज लगता है कि पूज्य बाबूजी का वो मंत्र कितना कारगर था? उनके इस नियम के कारण ही मुझे सामने वाले को तौलने और पौलने या तौलकर पौलने की दृष्टि मिली। साथ ही मार कर पुचकारने का हुनर भी सिद्ध हुआ। माँ ने ध्यान से मेरी बात सुनी, फिर धीरे से पूछा और कुछ कहना है या कह चुके? मुझे मौन देख वे बोली, अच्छा ये बताओ तुम स्कूल क्यों जाते हो? मैंने कहा, पढ़ने। उन्होंने फिर पूछा, पढ़ने से क्या मिलता है? मैंने कहा, ज्ञान। वे बोली, अब ये बताओ कि ज्ञान किसे कहते हैं? अब मैं सोच में पड़ गया। मैंने देखा कि बाबूजी भी मंद मुस्कुराहट लिए पूरी तन्मयता से माँ को सुन रहे हैं। बाबूजी माँ से जितना प्रेम करते थे, उससे कहीं अधिक वे उनका आदर करते थे। मुझे मौन और समझने की स्थिति में देख माँ बोली, ज्ञान हमें अड़ना भी सिखाता है और लड़ना भी। मैं चाहती हूँ कि तुम अड़ना नही, लड़ना सीखो। लड़ना समझते हो? मैंने कहा,मारना-पीटना। उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे वे मेरी आँखों के रास्ते मेरे हृदय में बैठकर मुझसे बात कर रही हैं, वें बोली, नही....मारना-पीटना और लड़ने में अंतर है। मार-पीट में या तो तुम किसी को हराते हो या कोई तुमको हराता है लेकिन लड़ने में किसी को हराने का नही, जीतने का भाव होता है| अपनी कमज़ोरियों से लड़ना मतलब कमज़ोरियों को जीतना। परिस्थिति से लड़ना यानी परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करना। शंका से लड़ना यानी शंका को जीतकर उससे मुक्त हो जाना। संकल्प से लड़ना मतलब संकल्प को जीतकर सिद्ध कर अपना सहयोगी बनाना। जीतने की इच्छा सकारात्मक भाव है और मारपीट के हराने की इच्छा नकारात्मक ऊर्जा। अड़ना हमें गड़ाता है तो लड़ना हमें बढ़ाता है। मैं चाहती हूँ कि ज्ञान को बोझ समझकर तुम गड़ो नही, बढ़ो। तुम सफलता के लिए नही, अपने सुख के लिए पढ़ो| हम तुम्हें स्कूल परीक्षा में आए प्रश्नों का उत्तर सीखने नही भेजते बल्कि जीवन की परिस्थितियों का हल ढूँढने के लिए भेजते हैं।
आज उम्र के इस मोड़ पर खड़ा होकर सोचता हूँ तो लगता है कि माँ कितनी सही थी? हम अपने बच्चों को स्कूल की परीक्षा में अव्वल आने के लिए उन पर दबाव डालते हैं, शायद इसलिए वे स्कूल में अव्वल आने के बाद भी जीवन भर फ़ेल होने के अहसास से भरे रहते हैं। हमें अपने छोटे-छोटे बच्चों से बड़ी-बड़ी बातें करनी चाहिए ताकि वे बड़े होकर छोटी-छोटी बातें ना करें क्योंकि छोटे बच्चों के मुँह से बड़ी बातें सुनना यदि हमें सुखद लगता है तो बड़ों के मुँह से छोटी बातें सुनना कष्टकारी होता है।
सो हमारी दोहरी ज़िम्मेदारी थी कि एक तो पिटने से बचो और दूसरा यदि किसी को पीटो तो यह निश्चित करो कि वो शिकायत घर ना पहुँचे। आज लगता है कि पूज्य बाबूजी का वो मंत्र कितना कारगर था? उनके इस नियम के कारण ही मुझे सामने वाले को तौलने और पौलने या तौलकर पौलने की दृष्टि मिली। साथ ही मार कर पुचकारने का हुनर भी सिद्ध हुआ। माँ ने ध्यान से मेरी बात सुनी, फिर धीरे से पूछा और कुछ कहना है या कह चुके? मुझे मौन देख वे बोली, अच्छा ये बताओ तुम स्कूल क्यों जाते हो? मैंने कहा, पढ़ने। उन्होंने फिर पूछा, पढ़ने से क्या मिलता है? मैंने कहा, ज्ञान। वे बोली, अब ये बताओ कि ज्ञान किसे कहते हैं? अब मैं सोच में पड़ गया। मैंने देखा कि बाबूजी भी मंद मुस्कुराहट लिए पूरी तन्मयता से माँ को सुन रहे हैं। बाबूजी माँ से जितना प्रेम करते थे, उससे कहीं अधिक वे उनका आदर करते थे। मुझे मौन और समझने की स्थिति में देख माँ बोली, ज्ञान हमें अड़ना भी सिखाता है और लड़ना भी। मैं चाहती हूँ कि तुम अड़ना नही, लड़ना सीखो। लड़ना समझते हो? मैंने कहा,मारना-पीटना। उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे वे मेरी आँखों के रास्ते मेरे हृदय में बैठकर मुझसे बात कर रही हैं, वें बोली, नही....मारना-पीटना और लड़ने में अंतर है। मार-पीट में या तो तुम किसी को हराते हो या कोई तुमको हराता है लेकिन लड़ने में किसी को हराने का नही, जीतने का भाव होता है| अपनी कमज़ोरियों से लड़ना मतलब कमज़ोरियों को जीतना। परिस्थिति से लड़ना यानी परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करना। शंका से लड़ना यानी शंका को जीतकर उससे मुक्त हो जाना। संकल्प से लड़ना मतलब संकल्प को जीतकर सिद्ध कर अपना सहयोगी बनाना। जीतने की इच्छा सकारात्मक भाव है और मारपीट के हराने की इच्छा नकारात्मक ऊर्जा। अड़ना हमें गड़ाता है तो लड़ना हमें बढ़ाता है। मैं चाहती हूँ कि ज्ञान को बोझ समझकर तुम गड़ो नही, बढ़ो। तुम सफलता के लिए नही, अपने सुख के लिए पढ़ो| हम तुम्हें स्कूल परीक्षा में आए प्रश्नों का उत्तर सीखने नही भेजते बल्कि जीवन की परिस्थितियों का हल ढूँढने के लिए भेजते हैं।
आज उम्र के इस मोड़ पर खड़ा होकर सोचता हूँ तो लगता है कि माँ कितनी सही थी? हम अपने बच्चों को स्कूल की परीक्षा में अव्वल आने के लिए उन पर दबाव डालते हैं, शायद इसलिए वे स्कूल में अव्वल आने के बाद भी जीवन भर फ़ेल होने के अहसास से भरे रहते हैं। हमें अपने छोटे-छोटे बच्चों से बड़ी-बड़ी बातें करनी चाहिए ताकि वे बड़े होकर छोटी-छोटी बातें ना करें क्योंकि छोटे बच्चों के मुँह से बड़ी बातें सुनना यदि हमें सुखद लगता है तो बड़ों के मुँह से छोटी बातें सुनना कष्टकारी होता है।

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